आर्यसमाज


ओउम्

उन्नीसवीं शताब्दी नवजागरण की शताब्दी रही है जिसमें महाभारत काल के बाद जो अंधकार व अज्ञान छा गया था और अनेक मत संप्रदाय उत्पन्न हुए, अनेक महापुरुषों के द्वारा अपनी-अपनी विचारधारा को ही सर्वोपरि मानाऔर समाज विभाजित हॉट्स चला गया, आस्तिक और नास्तिक दो प्रकार के धर्म चले ।

इन सभी के बीच 19वीं शताब्दी में समाज सुधार व नवजागरण का कार्य हुआ, नवजागरण के पुरोधा महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने शाश्वत धर्म - सनातन धर्म की मान्यता को सबके समक्ष रखा उन्होंने कहा कि सृष्टि के आदि में जिन वेदों का ज्ञान परमात्मा ने दिया था वही सदैव सर्वस्वीकार्य हैं और सर्व कल्याण का मार्ग हैं, इसलिए 'वेदों की ओर लौटो' का उद्घोष करते हुए महर्षि जी ने सत्य सनातन वैदिक धर्म की मान्यताओं को मानव समाज के अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचाने का संकल्प लिया ।

जब वे अपने व्याख्यान देते थे तो भारतवासियों से कहते थे कि हमें गर्व होना चाहिए कि हम ऋषियों की संतान हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी एवं योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण जी के वंशज हैं, हमें अपनी प्राचीन संस्कृति पर गर्व है, हाँ यह सत्य है कि मानव समाज में कुछ गिरावट आई और वैदिक सिद्धांतों से दूर होता चला गया, मैं उन्हें सिद्धांतों की,जीवन शैली की एवं मान्यताओं की पुनर्स्थापना के लिए आर्यावर्त के ही नहीं विश्व के प्रथम धर्म सनातन धर्म व वैदिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए ही आर्य समाज की स्थापना कर रहा हूँ, महर्षि जी का मत था कि मैं कोई भी नया मत संप्रदाय या विचारधारा प्रस्तुत नहीं कर रहा अपितु यह सब आर्यावर्त के प्राचीन ऋषि मुनियों के विचारों को ही सत्य व कल्याणकारी मानकर इन वैदिक सिद्धांतों को अंतिम मनुष्य तक पहुंचाने के लिए एक वैचारिक संगठन-"आर्य समाज" की स्थापना कर रहा हूँ। महर्षि दयानंद जी द्वारा स्थापित यह आर्य समाज सत्य सनातन वैदिक धर्म का ही स्वरूप उद्घाटित करने का संगठन है, वैचारिक आंदोलन है जिसका मुख्य उद्देश्य है - "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्" अर्थात समस्त विश्व को आर्य बनाओ, श्रेष्ठ बनाओ, उपकारी बनाओ, सबका कल्याण करने वाला बनाओ। आर्य समाज के 10 नियमों में सभी नियम ऐसे हैं जिन्हें स्वीकार करने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती,चाहे वह हिन्दू हो, मुस्लिम हो, ईसाई हो या अन्य कोई मतावलम्बी हो साथ ही वह भारतवासी हो या विश्व के किसी भी देश में रहने वाला हो वह इन 10 नियमों को स्वीकार करके मानव कल्याण के कार्य में प्रवृत्त हो सकता है। यही कार्य आर्यसमाज करता है। सीमित शब्दों में कहा जाए तो आर्य समाज वेद के मार्ग पर चलने वाला एक ऐसा धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन है जो आधुनिक विकास के मार्ग का भी समर्थन करता है और प्राचीन अध्यात्म मार्ग का भी समर्थन करता है।

विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ चार वेद ही इसके आधार ग्रन्थ हैं, महर्षि की कालजयी रचना- " सत्यार्थप्रकाश , ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका, संस्कार विधि व गौ करुणानिधि जैसे अनुपम ग्रन्थ मार्गदर्शक हैं। आर्य समाज हल्द्वानी इस वैश्विक आर्यसमाज की एक स्थानीय इकाई है जिसने वेद की मान्यताओं को, ऋषियों के विचारों को और विशुद्ध सनातन धर्म को आधुनिक परिवेश में नवीनता के साथ समाज के प्रत्येक आयु वर्ग व सामाजिक वर्ग के बालक-बालिकाओं, युवक- युवतियों और वयोवृद्ध जनों तक पहुंचाने का संकल्प लिया है। संगठन में अपनी स्थापना से लेकर अनेक महापुरुषों ने तन मन धन से अपना सहयोग देते हुए जीवन अर्पित किए हैं ऐसे अनेक जीवन दानी महानुभावों का आभार और धन्यवाद करते हैं जिन्होंने हमें सच्चे मानव धर्म से परिचित कराया और सनातन शाश्वत सिद्धांतों से सुदृढ़ बनाने का उपदेश दिया है। "मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्